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कोलकाता: पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के लिए एक बार फिर ममता बनर्जी का ‘जादू’ काम आया और पार्टी ने राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 29 पर जीत हासिल की। इतना ही नहीं टीएमसी ने भाजपा को पिछली बार की 18 सीटों से पीछे धकेल कर उसे 12 तक ही सीमित कर दिया। भाजपा को 39 प्रतिशत से भी कम वोट मिले। हालांकि दीदी ने जीत का श्रेय राज्य की जनता को दिया और चुनावी नतीजों को ‘बंगाल के विरोधियों को जनता का ठेंगा’ करार दिया। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि ममता का राजनीतिक करिश्मा, सड़क पर उतरकर लड़ाई लड़ने वाली जुझारू नेता की उनकी छवि और भाजपा के प्रति उनका उग्र विरोध उनके समर्थकों के विश्वास को बनाए रखने में कहीं अधिक काम आया। इससे उन्हें सत्ता विरोधी लहर के बावजूद पार्टी के 2021 के राज्य विधानसभा चुनाव के प्रदर्शन को लगभग दोहराने में मदद मिली। बनर्जी के पक्ष में उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता के अलावा जिस कारण से वह जीत को बरकरार रखने में कामयाब रहीं वह है ‘लाभार्थी राजनीति’, जिसे उन्होंने राज्य में अपने कार्यकाल के दौरान सक्रिय रूप से अपनाया। इसने विपक्ष के बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के आरोपों और सत्ता-विरोधी ज्वार को कम कर दिया।
योजना के लाभार्थियों ने किया दीदी का समर्थन…
बता दें कि ‘लक्ष्मी भंडार’ और ‘कन्याश्री’ जैसी परियोजनाओं के लाभार्थियों ने भी बनर्जी को बड़े पैमाने पर समर्थन दिया। उन्होंने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया कि टीएमसी प्रमुख के कई नेता जेल में हैं, केंद्रीय जांच एजेंसियां उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी सहित कई अन्य लोगों पर शिकंजा कस रही हैं और केंद्रीय कोष पर प्रतिबंध लगा हुआ है, जिससे राज्य की कल्याणकारी योजनाएं कथित तौर पर पटरी से उतर गई हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने खुले तौर पर पीड़ित कार्ड खेला और ‘बाहरी लोगों’ से राज्य के लोगों की रक्षक के रूप में अपनी छवि को बढ़ावा दिया। लोकसभा चुनाव 2014 बनर्जी के राजनीतिक जीवन का सबसे अच्छा समय था जब उन्होंने राज्य की 42 लोकसभा सीट में से 34 पर कब्जा किया था।