हिंदू विवाह ‘व्यापारिक सौदा’ नहीं, पवित्र बंधन है, परिवार की नींव है : सुप्रीम कोर्ट
नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने महिलाओं को उत्पीड़न से बचाने वाले कानूनों के दुरुपयोग को लेकर एक बार फिर बड़ी टिप्पणी की है कि महिलाओं के कल्याण के लिए बने सख्त कानून पतियों को ‘सजा देने, धमकाने, दबाने या उनसे पैसे ऐंठने’ के लिए नहीं हैं। शीर्ष न्यायालय ने साथ ही कहा है कि हिंदू विवाह कोई ‘व्यापारिक सौदा’ नहीं, एक पवित्र बंधन है, परिवार की नींव है।
पत्नियों को सलाह
न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति पंकज मित्तल के पीठ ने यह टिप्पणी एक वैवाहिक विवाद का निपटारा करते हुए की। पीठ ने तलाक को मंजूरी देते हुए पत्नी की तरफ से पति के खिलाफ दर्ज कराये गये सभी आपराधिक मामलों को भी रद्द कर दिया। यह मामला एक अलग हुए दंपती के बीच तलाक का था, जिसमें पति को पत्नी को 12 करोड़ रुपये का स्थायी गुजारा देने का आदेश दिया गया। पीठ ने उन मामलों पर चिंता जतायी जहां पत्नी और उसका परिवार पति और उसके परिवार से पैसे ऐंठने के लिए आपराधिक शिकायतों का इस्तेमाल करते हैं। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि पुलिस कभी-कभी जल्दबाजी में कार्रवाई करती है और पति या उसके रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लेती है। ऐसे मामलों में जमानत मिलना भी मुश्किल होता है। पीठ ने कहा कि पत्नियों को ध्यान रखना चाहिए कि ये कानून उनकी भलाई के लिए हैं, न कि पतियों को परेशान करने के लिए। पीठ ने देखा कि वैवाहिक विवादों से जुड़ी ज्यादातर शिकायतों में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की कई धाराओं मसलन बलात्कार, आपराधिक धमकी और विवाहित महिला के साथ क्रूरता का ‘बंडल’ के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जिसकी शीर्ष न्यायालय ने कई मौकों पर निंदा की है।
छोटे-मोटे विवाद भी बन जाते हैं अहंकार की लड़ाई
पीठ ने कहा कि आपराधिक कानून के प्रावधान महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तीकरण के लिए हैं लेकिन कभी-कभी कुछ महिलाओं द्वारा उन उद्देश्यों के लिए उपयोग किये जाते हैं जिनके लिए उनका कभी इरादा नहीं था। पुलिस कभी-कभी चुनिंदा मामलों में कार्रवाई करने और पति या उसके रिश्तेदारों, जिनमें वृद्ध और बिस्तर पर पड़े माता-पिता और दादा-दादी भी शामिल हैं, को गिरफ्तार करने के लिए जल्दी होती है जबकि निचली अदालतें प्राथमिकी में ‘अपराधों की गंभीरता’ के कारण अभियुक्त को जमानत देने से बचती हैं। पति और पत्नी के बीच छोटे-मोटे विवाद भी अहंकार और प्रतिष्ठा की बदसूरत विनाशकारी लड़ाई में बदल जाते हैं और सार्वजनिक रूप से गंदी बातें सामने आती हैं, जिससे अंततः रिश्ता इस हद तक खराब हो जाता है कि सुलह या साथ रहने की कोई संभावना नहीं रहती है।
गुजारा तय करने का कोई सीधा-सादा फॉर्मूला नहीं
शीर्ष न्यायालय ने कहा कि पत्नी द्वारा भोपाल की एक अदालत में लंबित हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (1) के तहत दायर तलाक की याचिका को पुणे की एक अदालत में स्थानांतरित करने की मांग करते हुए एक याचिका दायर की गयी थी। पति ने संविधान के अनुच्छेद 142(1) के तहत वैवाहिक संबंध खत्म करने की मांग की थी। अदालत ने कहा कि पक्षकार और उनके परिवार के सदस्य अपने वैवाहिक संबंधों की संक्षिप्त अवधि के दौरान कई मुकदमों में शामिल रहे। पीठ ने कहा कि शादी वास्तव में बिल्कुल भी नहीं चली। गुजारे के मुद्दे पर पीठ ने कहा कि पत्नी ने दावा किया कि अलग हुए पति की कुल संपत्ति 5,000 करोड़ रुपये है। उसके अमेरिका और भारत में कई व्यवसाय हैं। कई संपत्तियां हैं। पत्नी ने दावा किया कि अलग हुए पति ने अपनी पहली पत्नी को अलग होने पर वर्जीनिया के एक घर के अलावा कम से कम 500 करोड़ रुपये का भुगतान किया था। महिला ने इसी के अनुसार अपने लिए भी गुजारा भत्ता की मांग की थी। पीठ ने कहा कि हालांकि इस प्रथा में एक विसंगति है क्योंकि बराबरी की मांग केवल उन मामलों में की जाती है जहां जीवनसाथी साधन संपन्न व्यक्ति है या अपने लिए अच्छा कर रहा है। गुजारा तय करना विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है और इसका कोई सीधा-सादा फॉर्मूला नहीं हो सकता।
पारिवारिक अदालत के निष्कर्ष जतायी सहमति
पति पारस्परिक तलाक के आदेश द्वारा अपनी शादी को भंग करने की संयुक्त याचिका में सभी दावों के पूर्ण और अंतिम निपटारे के लिए 8 करोड़ रुपये की राशि का भुगतान करने पर सहमत हो गया था। पीठ ने कहा कि पुणे की पारिवारिक अदालत ने 10 करोड़ रुपये का आकलन किया है, जो याची के हकदार स्थायी गुजारे की मात्रा है। हम पुणे की पारिवारिक अदालत के उक्त निष्कर्ष को स्वीकार करते हैं। याची को 2 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि का भुगतान किया जाना चाहिए ताकि वह एक और फ्लैट प्राप्त कर सके।