नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने नाबालिगों से जुड़े संपत्ति लेनदेन पर एक महत्वपूर्ण फैसले में व्यवस्था दी है कि 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को वयस्क होने पर अपने स्वाभाविक अभिभावकों द्वारा अदालत की मंजूरी के बिना किये गये संपत्ति हस्तांतरण को अस्वीकार करने के लिए मुकदमा दायर करने की अनिवार्य आवश्यकता नहीं है।
अभिभावक द्वारा संपत्ति के हस्तांतरण को नामंजूर करने का हक
न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी वराले के पीठ ने ‘के. एस. शिवप्पा बनाम श्रीमती के नीलाम्मा’ मामले में 7 अक्टूबर को दिये फैसले में कहा कि जब कोई नाबालिग वयस्क हो जाता है, तो वह अपने अभिभावक द्वारा की गयी संपत्ति के हस्तांतरण को अपने स्पष्ट और निर्विवाद प्रवर्तन से अस्वीकार कर सकता है, जैसे कि उस संपत्ति को स्वयं बेच देना या किसी और को स्थानांतरित कर देना। पीठ ने कहा कि यह सुरक्षित रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नाबालिग के अभिभावक द्वारा निष्पादित ‘अमान्य करने योग्य’ (वॉयडेबल) लेनदेन को वह नाबालिग वयस्कता हासिल करने पर एक निश्चित समय सीमा के भीतर ऐसे लेनदेन को निरस्त करने के लिए मुकदमा दायर करके या अपने निर्विवाद प्रवर्तन से अस्वीकार या नजरअंदाज कर सकता है।
क्या कहता है कानून?
पीठ ने हिंदू अप्राप्तवयता संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा सात और आठ का हवाला दिया तथा कहा कि प्रावधानों को सरलता से पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाबालिग के स्वाभाविक अभिभावक को अदालत की पूर्व अनुमति के बिना नाबालिग की अचल संपत्ति के किसी भी हिस्से को बंधक रखने, बेचने, उपहार देने या अन्य किसी प्रकार से हस्तांतरित करने या यहां तक कि ऐसी संपत्ति के किसी भी हिस्से को पांच साल से अधिक अवधि के लिए या नाबालिग के वयस्क होने की तारीख से एक वर्ष से अधिक अवधि के लिए पट्टे पर देने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है।