होली और बसन्त का चोली-दामन जैसा साथ है। एक की याद आते ही, दूसरे का चित्र आंखों के सम्मुख खिंच जाता है। इस दिन प्रत्येक भारतवासी भस्मीभूत शंकर भोले भण्डारी का अवतार होता है। सभी लोग फक्कड़ और मस्त दिखायी देते हैं। छोटे-बड़े, ऊंच-नीच, गरीब-अमीर, ग्रामीण-शहरी का भेद भुला कर एक-दूसरे के गले मिलते हैं तथा परस्पर गुलाल मलते हैं। इस दिन प्रत्येक स्त्री-पुरूष गुलाल के रंग से पुता हुआ नजर आता है।
एक बार राजा पृथ्वीराज चौहान ने अपने दरबार के राजकवि चन्द से पूछा था, ‘हम लोगों में जो होली के त्यौहार का प्रचलन है, वह क्या है? हम सभ्य आर्य लोगों में ऐसे अनार्य महोत्सव का प्रचार क्योंकर हुआ कि आबाल-वृद्ध सभी उस दिन पागल-से होकर वीभत्स रूप धारण करते तथा अनर्गल और कुत्सित वचनों का निर्लज्जतापूर्वक उच्चारण करते हैं ?
‘यह सुनकर कवि बोला, ‘राजन्! इस महोत्सव की उत्पत्ति का विधान होली की पूजा-विधि में पाया जाता है। फागुन मास की पूर्णिमा में होली का पूजन किया जाता है। उसमें लकड़ी और घास-फूस का बड़ा भारी ढेर लगाकर वेद-मंत्रों के साथ होलिका-दहन किया जाता है।
नारद जी ने युधिष्ठिर से होली के संबंध में जो कथा कही है, वह इस प्रकार है।
नारद जी बोले, है नराधिप ! फाल्गुन की पूर्णिमा को सब मनुष्यों को अभयदान देना चाहिए जिससे प्रजा के लोग निश्शंक होकर हंसें और क्रीड़ा करें। डण्डे और लाठी को लेकर बालक शूरवीरों की तरह गांव से बाहर जाकर होली के लिए लकड़ी और कण्डों का संचय करें। उनमें विधिवत् हवन् किया जाय। अट्टहास, किलकिलाहट और मंत्रोच्चारण से पापात्मा राक्षसी नष्ट हो जाती है।
इस व्रत की व्याख्या के अनुसार हिरण्यकशिपु ने अपनी भगिनी और प्रह्लाद की फुआ होलिका को प्रह्लाद को मार डालने के लिए नियुक्त किया था। होलिका के पास एक ऐसी चादर थी जिसे ओढऩे पर वह आग के प्रभाव से बच सकती थी। होलिका ने उस चादर को ओढ़कर प्रह्लाद को गोद में ले लिया और अग्नि में कूद पड़ी। तभी दैवी चमत्कार हुआ। होलिका आग में जलकर भस्म हो गयी परन्तु राम भक्त प्रहलाद का बाल भी बांका न हुआ। भक्त की विजय हुई, राक्षसी की पराजय। यह सत्य की असत्य पर विजय थी। तब से आज तक होलिका-दहन की स्मृति में होली का पर्व मनाया जाता है।
हे राजन् ! पुराणान्तर में ऐसी भी व्याख्या है कि ढंढला नामक राक्षसी ने शिव पार्वती का तप कर वरदान पाया था कि जिस किसी बालक को वह पाये, खाती जाय। वरदान देते समय शिव जी ने यह शर्त भी रख दी थी कि जो बालक वीभतस आचरण एवं राक्षसी वृत्ति में निर्लज्जतापूर्वक फिरते होंगे, उनको तू न खा सकेगी। अत: उस राक्षसी से बचने के लिये बालक नाना प्रकार के वीभत्स और निर्लज्ज स्वांग बनाते और अंट-संट बकते हैं।
होली के प्रचलन की पृष्ठभूमि में जो भी मान्यताएं हों, यह निर्विवाद है कि यह पर्व मस्ती, उमंग, उत्साह की अभिव्यक्ति का पर्व है।