सतीश, सन्मार्ग संवाददाता
हुगली : पांडुआ के शिमलागढ़ स्थित दक्षिणा काली मंदिर की स्थापना लगभग 500 वर्ष पूर्व मानी जाती है। वर्तमान पुजारी अनामिक चट्टोपाध्याय के अनुसार, माँ शिमलागढ़ काली अत्यंत जाग्रत देवी हैं, जो श्रद्धालुओं की हर प्रार्थना स्वीकार करती हैं। माना जाता है कि यहाँ पूजा का प्रारंभ शेरशाह सूरी द्वारा जी.टी. रोड के निर्माण से भी पहले हुआ था। उस समय यह पूरा इलाका घने जंगलों और श्मशान से घिरा हुआ था। कहा जाता है कि डाकू लोग माँ काली को प्रसन्न करने के लिए यहाँ नरबलि दिया करते थे। लोककथाओं में प्रसिद्ध रघु डाकू का नाम भी यहाँ की साधना से जुड़ा हुआ है। बाद में तांत्रिक नटोबर भट्टाचार्य ने देवी के आदेश से नरबलि की प्रथा समाप्त की और उसके स्थान पर केवल बकरे की बलि दी जाने लगी। यह पूजा लक्ष्मण भट्टाचार्य के वंशजों द्वारा आरंभ की गई थी और आज भी उन्हीं के परिवार द्वारा नियमित रूप से संपन्न की जाती है। बताया जाता है कि प्राचीन काल में इस क्षेत्र का नाम हरिहरपुर था, लेकिन देवी की ख्याति बढ़ने के बाद इसका नाम बदलकर शिमलागढ़ कर दिया गया। शुरुआत में मंदिर तालपत्रों से निर्मित था और देवी की मूर्ति मिट्टी की थी, जबकि अब वहाँ कष्टि पत्थर की मूर्ति प्रतिष्ठित है। काली पूजा के अवसर पर यहाँ 108 प्रकार के भोग चढ़ाए जाते हैं, जिनमें संदेश और मछली की कालिया विशेष भोग के रूप में प्रसिद्ध हैं। पूजा के समय दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ पहुँचते हैं और अपनी मनोकामना पूर्ण होने की आशा में मंदिर के समीप स्थित पेड़ पर ईंट का टुकड़ा बाँधते हैं। माँ के मंदिर से होकर गुजरने वाले यात्री भी दर्शन व पूजा-अर्चना किए बिना नहीं जाते। पाँच शताब्दियों से चली आ रही यह पूजा आज भी श्रद्धा, परंपरा और लोक आस्था का जीवंत प्रतीक बनी हुई है।