सन्मार्ग संवाददाता
कोलकाता : पिछले तीन दिनों से शोर सीमा का उल्लंघन हो रहा है और लोग काली पूजा और दिवाली के दिन रात 8 बजे से 10 बजे के बीच पटाखे फोड़ने के नियम का पालन किए बिना आतिशबाजी कर रहे हैं, इस बात से पर्यावरणविद और हरित कार्यकर्ता निराश हैं। उनका कहना है कि यह दर्शाता है कि वे लोगों को जागरूक करने और पर्यावरण प्रदूषण रोकने के लिए मनाने में विफल रहे हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष दत्ता ने कहा, "सरकार और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा पुलिस जैसी कई एजेंसियां इस बार सख्ती नहीं दिखा पाईं। लेकिन यह भी सच है कि हम जैसे लोग ही कानून तोड़कर देर रात तक पटाखे फोड़ते रहे। हम एक्टिविस्ट लोग लोगों को हॉर्न बजाने, तेज संगीत चलाने और पटाखे फोड़ने से रोकने में असफल रहे।" सुभाष दत्ता को हावड़ा मैदान के घर के शोर से इतनी परेशानी हुई कि उन्हें प्रिंस अनवर शाह रोड के फ्लैट में शिफ्ट होना पड़ा।
पूर्व नॉइज़ वॉचडॉग और PCB के कानून अधिकारी ने कहा कि केवल अल्पसंख्यक लोग ही पटाखे फोड़ते हैं और बाकी लोगों को परेशानी में डाल देते हैं। "लगभग दो दशक पहले हमने शोर सीमा पर सर्वे किया था। 95% लोगों ने पटाखों के लिए 90 डेसिबल की सीमा का समर्थन किया था। केवल 5% लोगों को लगता था कि उनकी उत्सव मनाने की आज़ादी छीनी जा रही है। अब जब शोर सीमा हटा दी गई है, वही 5% बाकी लोगों की जिंदगी नरक बना रहे हैं।"
मुखर्जी ने जोर दिया कि शोर प्रदूषण को रोकने का एकमात्र तरीका है स्रोत पर ही रोक लगाना। "जब तक पटाखे बाजार में आते रहेंगे और लोग खरीदेंगे, वे फोड़ेंगे। 100% जागरूकता संभव नहीं है। अगर सिर्फ 2% लोग भी पटाखे फोड़ें तो बहुत शोर मच सकते हैं।"
पर्यावरण विद ने कहा कि यह एक बुरा चक्र बन गया है, जिसे तोड़ना मुश्किल है क्योंकि नागरिक विरोध के लिए जगह नहीं है, पुलिस असहाय महसूस करती है और अवैध पटाखा निर्माताओं के लिए यह जीविका का माध्यम है।
असली पीड़ित बुजुर्ग, हृदय रोगी और पालतू जानवर होते हैं जो इस शोर और प्रदूषण से प्रभावित होते हैं।"